ना फूलों की डोली हो,
नही कोई शहनाई हो,
ना पलके भीगे यारों की,
ना कोई गमगीन समा हो,
जब अपनी अर्थी उठे तो बस,
उसके कदमों की आहट हो,
उसके कदमों की आहट पड़े और,
सफेद लिबास में लिपटी वो दस्तक दे,
देखे वो अपनी हसीन निगाहो से के,
हमारे चेहरे पे वो मुस्कुराहट आज भी है,
छोड़ के गये थे होंठों पर,
वो तारीफ के शब्द आज भी हैं,
तारीफ भी क्या करें उस मंज़र की,
जब वो हमको देखकर पलके झुकाए गुज़रते थे,
क्या तारीफ करें उस सादगी की
जिसपर हम लूट जाया करते थे,
हमारी बेसब्र कोशिशों का बस एक ही मकसद था,
के उसका दुपट्टा गुज़रे हमारे चेहरे से या
उसकी उंगलियाँ हमारे हाथों को छु जाए,
सोचते थे की कोई राह तो ऐसी
ज़रूर होगी जिसके मोड़ पर वो हमसे टकरा जाए,
पर ना वो राह मिली ना ही वो मोड़ आया,
ज़िंदगी गुज़र गयी इसी इंतज़ार में,
ना वो मंज़र लौटा, ना वो दौर आया,
अब जो लोग हमारे जनाज़े को कंधा लिए चल रहे हैं,
हमारी नज़रें अब भी जगी हैं इसी इंतेज़ार में,
के आज तो दुश्मन भी आए हैं हमें अलविदा करने,
एक पल के लिए ही सही वो मेहरबान आए,
ना आ सके वो तो भी कोई उन्हे दोष ना देना,
कोई तो वजह रही होगी,
गुनेहगार नही हैं वो,
हमारी जिस्म की राख को उनकी राह पर बिखरा देना,
के इसी बहाने इस आशिक़ को उनके कदम छु जाए…
-N2S
13092013