रोज़ सज संवर के आते हैं,
आईने में दो टक और देख आते हैं,
बेकरार भले ना हों, दिल मचलने लगता है तुम्हारे आस-पास,
तुमसे बात करने के लिए हम रोज़ नई नई तरकीबें बना आते हैं,
औरों से नज़रें छुपाकर, तुम्हे छुप छुपकर तकते हैं,
तुम कभी तो जिक्र करोगी हमारा अपनी बातों में,
हम इसी इंतज़ार में कान लगाए बैठे रहते हैं,
बार-बार कुर्सी से उठते हैं,
तुम्हे खोजते हैं और फिर बैठ जाते हैं,
तुम्हारे पास से गुजरने के लिए सौ बार कैंटीन से पानी पी आते हैं,
कभी बालों को सहलाती तुम, कभी उँगलियों से उन्हें उलझाती तुम,
तुम्हारे हसने पर हम बेवजह खिल खिला पड़ते हैं,
हर रंग पे जँचती हो तुम,
सफ़ेद में तो चांदी सी चमकती हो,
हम तुम्हे और खुदको एक रंग में सोचकर ही रंगीन हो जाते हैं,
रिश्ता नहीं तुमसे कुछ, रिश्ते एहसानों को मतलबी बना देते हैं,
नहीं लेकर चलता तुम्हे जहन में हमेशा,
यह ख्याल तो स्क्रीनसेवर की तरह सिर्फ ऑफिस की चार दीवारी में ही पाले रखते हैं,
ऑफिस का साथ है, जरूरतों का मोहताज़ है,
एक न एक दिन अलविदा ही कहेंगे,
उस दिन तुमसे हाथ मिलाकर, तुम्हे आखिर छू ही लेंगे…
-N2S
24032017