किसी छोटे से स्टेशन पर सीमेंट की बेंच पर बैठा मैं,
अपने गंतव्य से अनिभिज्ञ, कुछ और ही उधेड़बुन में मशगूल था,
सोचा आज कोई आत्मीय नहीं साथ तो इसी बेंच से ही थोड़ी गुफ्तगू कर लूँ,
समय भी गुज़र जायेगा और तन्हाई की टीस भी जाती रहेगी,
मैंने कहा, “ऐ मुसाफिरों के हमराज़ आज कुछ अपनी भी सुनाओ,
जो कुछ देखते हो दिन भर कुछ आप बीती बताओ,”
उसने जवाब दिया, “क्या सुनाऊँ तुम्हे राही?”,
“मैंने सिर्फ चेहरे नहीं रूहों को देखा है,
सिर्फ झूठी हंसी नहीं सच्ची दुआओं को देखा है,
मैंने यहाँ नौजवानों की बेसब्री देखी है,
ज़िन्दगी को सिर्फ एक ख्वाब समझती बेफिक्री देखी है,
यहीं कहीं पुरानी दोस्ती की गरमाहट थी,
तो अनजान रास्तों पर निकलते मुसाफिरों की हड़बड़ाहट भी थी,
यहीं माँ के पैर छूते संस्कार दिखे,
तो यहीं बाप से न कह पाए जज़्बात दिखे,
जंग पर जाते सिपाही के डर को महसूस किया,
उसकी सलामती के लिए देवी से प्रार्थना करती उसकी संगिनी को सुना,
ना जाने कितने इश्क़ों को अंजाम देखा,
न जाने कितने रिश्तों पर इल्जाम देखा,
अपने सपनों के लिए घर छोड़ आए लड़के के जेब में सिक्कों को गिना,
तो अपने नए घर जाती दुल्हन की उलझन को पढ़ा,
यहीं पर तो बैठे थे वो दोनों,
जब उसकी आँखों से आँसू बहकर ज़मीन पर ना गिरे,
उसके आशिक़ ने उन्हें गालों पर ही रोक लिया,
गाडी के दरवाज़े पर खड़ी जब वो रुख्सत होने लगी,
आशिक़ तब तक दौड़ा जब तक प्लेटफार्म न ख़त्म हो गया,
ये ट्रेन के स्टेशन भी अजीब होते हैं,
लोग घर तो पहुँच जाते हैं पर मंज़िल तक नहीं पहुँचते…”
-N2S
15042014