Station ki Bench

old wooden bench

किसी छोटे से स्टेशन पर सीमेंट की बेंच पर बैठा मैं,
अपने गंतव्य से अनिभिज्ञ, कुछ और ही उधेड़बुन में मशगूल था,
सोचा आज कोई आत्मीय नहीं साथ तो इसी बेंच से ही थोड़ी गुफ्तगू कर लूँ,
समय भी गुज़र जायेगा और तन्हाई की टीस भी जाती रहेगी,
मैंने कहा, “ऐ मुसाफिरों के हमराज़ आज कुछ अपनी भी सुनाओ,
जो कुछ देखते हो दिन भर कुछ आप बीती बताओ,”

उसने जवाब दिया, “क्या सुनाऊँ तुम्हे राही?”,
“मैंने सिर्फ चेहरे नहीं रूहों को देखा है,
सिर्फ झूठी हंसी नहीं सच्ची दुआओं को देखा है,
मैंने यहाँ नौजवानों की बेसब्री देखी है,
ज़िन्दगी को सिर्फ एक ख्वाब समझती बेफिक्री देखी है,
यहीं कहीं पुरानी दोस्ती की गरमाहट थी,
तो अनजान रास्तों पर निकलते मुसाफिरों की हड़बड़ाहट भी थी,



यहीं माँ के पैर छूते संस्कार दिखे,
तो यहीं बाप से न कह पाए जज़्बात दिखे,
जंग पर जाते सिपाही के डर को महसूस किया,
उसकी सलामती के लिए देवी से प्रार्थना करती उसकी संगिनी को सुना,
ना जाने कितने इश्क़ों को अंजाम देखा,
न जाने कितने रिश्तों पर इल्जाम देखा,
अपने सपनों के लिए घर छोड़ आए लड़के के जेब में सिक्कों को गिना,
तो अपने नए घर जाती दुल्हन की उलझन को पढ़ा,

यहीं पर तो बैठे थे वो दोनों,
जब उसकी आँखों से आँसू बहकर ज़मीन पर ना गिरे,
उसके आशिक़ ने उन्हें गालों पर ही रोक लिया,
गाडी के दरवाज़े पर खड़ी जब वो रुख्सत होने लगी,
आशिक़ तब तक दौड़ा जब तक प्लेटफार्म न ख़त्म हो गया,
ये ट्रेन के स्टेशन भी अजीब होते हैं,
लोग घर तो पहुँच जाते हैं पर मंज़िल तक नहीं पहुँचते…”
-N2S
15042014



साला विलायती

drinks

उसे नाज़ था अपनी इम्पोर्टेड मर्सिडीज पे,
मैं अपनी मारुती में ही सफर कर लेता था,
वो बोला तुझे क्या पता अमेरिका में इमारतें कितनी ऊँची हैं,
मैंने कहा मेरे पहाड़ों से तो छोटी ही होंगी,

वो इतराकर बोला मेरी कमाई अमरीकी डॉलरों में है,
मैंने कहा दो वक़्त की रोटी रुपयों में भी खरीदी जाती है,
उसने फिर अपनी आलिशान कोठी दिखाई जो
शायद मशहूर होटलों को भी बोना कर देती,
मैंने कहा पर ये तो खाली है,

हम दोनों ऐसे ही अपनी हैसियतों पर जुबानी जंग लड़ रहे थे की,
शमशान में दो चिताओं को जलता पाया,
कुछ देर उनका जलता देख मेरा दोस्त बोला,
मैं साला भूल गया था की मुझे लकड़ी पे ही जलाया जायेगा सोने पे नहीं,

मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा,
ओये राजा भोज तू इतनी जल्दी नहीं मरेगा, चल तुझे चाय पिलाता हूँ,
वो झट से बोलै, चाय छोड़ मैं तुझे अंग्रेजी शराब पिलाता हूँ वो भी विलायती,
“साला विलायती”
-N2S
22072014



मुस्कराते हुए अलविदा कह गए

lonely girl

कभी बड़ी हसरतों से देखा करते उन्हें,
बड़ी उम्मीदों से इंतज़ार किया करते थे उनका,
सौ बार फिर आते थे उनकी गली से,
के एक बार ही सही, उसे देखकर चेहरा खिल जाये उस दिन का,

बातें तो बहुत कही उनसे,
बस वो एक बात ना कह पाए, जो जीत पता दिल उसका,
वो ख़ुशी ख़ुशी चली गयी डोली में किसी और की,
क्या कहते? क्या कर लेते? उसी में भला लगा उसका,
उस दिन समझा प्यार तो आसान होता है भुलाना,
मुश्किल तो होता है सपनों को दफनाना,

आज वर्षों बाद राह में दिखी वो तो, बस मुस्कुराते रह गए,
उन्होंने पूछा हाल तो बस मुस्कराते रह गए,
खुद की आप बीती सुनाते-सुनाते जो आँखें गीली हुई उनकी,
हमारे बढ़ते हाथ उनके चेहरे तक आते-आते रह गए,

की किस हक़ से छुयें उन्हें?
की दोस्ती भी तो नहीं बांकी थोड़ी सी भी हमारे दरमियाँ,
ये सोचके की कहीं वो हो न जाये बदनाम हमारे साथ खड़े होकर,
हम मुस्कराते हुए अलविदा कह गए ,
मुड़कर देखा तो उनकी आँखें नम थी,
इस डर से की कहीं लौटकर गले ना लगा ले उन्हें,
हम घर की ओर बस दौड़ते चले गए…
-N2S



बस खिलौने कम हैं (Bas Khilaune Kam Hain)

closeup photo of white petaled flower showing beauty of life

अब अश्क सवाल नहीं पूछते,
वजह ढूंढते हैं बह जाने को,
हम बुद्धू हैं कि ,
यह समझ नहीं पाते,
मतलबी लोग नहीं, बस आलसी हैं,
साँसों की गिनती तो पहले जितनी ही है,
अब बस खिलौने कम हैं पाने को,



कल का हस्र देख, आज थोड़ा और जी लूँ ,
की कल से कम ही तुलेंगी खुशियां
ज़िन्दगी के तराज़ू पर,
हर दिन गुज़र जाता है सिकवे करते-करते,
हर शाम एक और वजह मिल जाती है खो जाने को,
वक़्त लाया तो है तरीके बहुत बातें कहने के लिए,
बस अलफ़ाज़ कम रह गए हैं सुनाने को,
आज भी इसी आस में सो जाते हैं,
की कल कोई उठाएगा,
स्कूल जाने को…
-N2S
02012019

मुझसे मैं मिलूँ (Mujhse Main Miloon)

silhouette of a boy walking with a backpack against the horizon

मिला ही नहीं मैं किताबों के अक्षरों में,
ना था मैं शब्दों के शोर में,
और ना रिश्तों की बंदिशों में,
पता ही नहीं चला के ये सफ़र कब हुआ शुरू,
तो कहाँ मिलता मैं दुनिया के सच और झूठ में,

मिला नहीं मैं दोस्तों की भीड़ में,
ना ही छलका किसी की आँखों में,
ना ही सुकून मिला किसी की बाहों में,
कोशिश बहुत की ठहर के ढूँढूँ इन रास्तों पर,
मगर कहाँ मिलता यहाँ तो हर कोई खुद से कोसो दूर है,



सोचा शायद सुनसान सड़कों में मिलूँ खुद से,
शायद पहाड़ों की उँचाई से दिखूं,
बिका नहीं नोटों की खुश्बू से,
रुका नहीं कमजोर हसरतों की ज़ंजीरों से,
फिर भी ढूँढ ना पाया खुद को कहीं,

अब सोचता हूँ की शायद मैं तो यहाँ कभी था ही नहीं,
फिर भी एक आस लिए भटकता हूँ की क्या पता कहीं
किसी मोड़ पर
मुझसे मैं मिलूँ…

-N2S
21092012