उम्र के इस मोड़ पे बचपन सी नादानगी की छूट नहीं मिलती,
और न ही बूढ़ों की तरह वरिष्ठ नागरिकता का कोटा,
हर नज़र तुम्हे नापति है, तोलती है,
और लाख भला करना चाहो,
अपनी ज़रा सी असहजता का गुन्हेगार तुम्हे ही ठहराती है,
रिश्तेदारी सिर्फ लेन-देन बनकर रह गयी है और यारी तारीखों की मोहताज़,
झूठ जरुरी हो गया है और जी-हज़ूरी आदत,
शिकार भी सब है यहाँ और सभी ही हैं शिकारी,
ज़िन्दगी सांसें गिनती की ही देती है,
उसकी नहीं होती हैसियतों से कोई देनदारी,
न जाने किस कल के लिए बचा रखी है फुर्सत हर एक ने,
आज में घिस-घिसकर जीते हैं, सिर्फ एक भुलावे के लिए,
घडी तो एक वही रख़ी है बरसों से,
बस बैटरी-फीते बारी बारी बदल दिए जाते हैं,
इस कल के इंतज़ार में हम न जाने कितने आज जलाये जाते हैं…
-N2S
08012018