रिस रिस कर मिलती खुशियों को समेटते हुए मैं चला जा रहा था,
दौड़ती भागती इस दुनिया में मैं भी तेज़ कदमों से चला जा रहा था,
दिल था बेचैन, वजहें हज़ार थी,
माथे पर सिकन की लकीरें सवार थी,
रुकना पड़ा राह में के एक जनाज़ा गुज़र रहा था,
चार कंधों पर लेटा, सफेद कफ़न में लिपटा,
आँखरी सफ़र पर चला जा रहा था,
जाने किस वजह मेरे कदम रुक गये,
गौर से देखने की हसरत हुई उस गुमनाम को,
जिसके पीछे लोगों को हुज़ूम चला जा रहा था,
शायद होगी कोई बड़ी हस्ती, जिसने खूब नाम कमाया होगा,
यूँही लोग नहीं होते शरीक आजकल मज़ारों में,
आँसू बह रहे थे कुछ के आँखो से,
फ़र्क करना मुश्किल था के असली थे या फिर रोज़ के,
पूछने पर पता चला के कोई बड़े नेता थे,
जिनका था बड़ा रसुक, जिनके चेले अभिनेता थे,
जिनकी थी आलीशान कोठियाँ, दो-चार महल भी थे,
इनको विदा करने आए चेहरों में बड़े-बड़े नाम शामिल थे,
आँखिर गया क्या इनके साथ जिनके पास सब कुछ था,
ये तो बेचारे कफ़न भी साथ ना ले जा सके,
आँखिर फिर ये दौड़ क्यूँ जब मौत ही लिखी है नसीब में सबके,
मेरा आँखरी सफ़र भी तो चार कंधों में ढोया जाएगा,
लगाकर मुर्दा तन को आग, गंगा में बहा दिया जाएगा,
सोच में डूबा था के ऐसा लगा जैसे नेताजी नीद से खड़े हो रहे हो,
मैने आँखें मसली की शायद मेरा वहम हो,
पर सफेद लिबास में लिपटे नेताजी मुस्कुराते मेरे सामने खड़े थे,
और सड़क किनारे लोग उनकी लाश को कंधा दिए जा रहे थे,
मुस्कुराते हुए वे बोले,”बड़ी भीड़ है मेरे जनाज़े पर”,
“जो चला सारी ज़िंदगी अकेला उसकी मज़ार पर इसकी उम्मीद ना थी”,
“आज तो वे भी आए है जो कभी ना आए मेरे जीते जी”,
“शायद देखने आए होंगे की बात सच है या झूठी”,
“खैर जाने दो, शिकवा गीला करते तो सारी ज़िंदगी बीत गयी”,
“जब साथ तो खुद की पहचान तक ना गयी तो इन रिश्तों से क्या रौस करूँ”,
मैने पूछा की,”जब मंज़िल ही आपकी यही थी तो ये भाग दौड़ क्यूँ की”,
“क्यूँ बहाया इतना पसीना, क्यूँ जलाया खुद की सासों को?”,
एक हल्की मुस्कान के साथ नेताजी बोले,
“काश बस यह सच पता होता”,
और फिर उन्होने एक गुमनाम कवि की आँखरी पंक्तियाँ दोहरा दी,
“मंज़िल तो सबकी यही है बस ज़िंदगी बीत गयी यहाँ आते-आते”…
-N2S
10092012
[Photo by Billy Pasco on Unsplash]