मिला ही नहीं मैं किताबों के अक्षरों में,
ना था मैं शब्दों के शोर में,
और ना रिश्तों की बंदिशों में,
पता ही नहीं चला के ये सफ़र कब हुआ शुरू,
तो कहाँ मिलता मैं दुनिया के सच और झूठ में,
मिला नहीं मैं दोस्तों की भीड़ में,
ना ही छलका किसी की आँखों में,
ना ही सुकून मिला किसी की बाहों में,
कोशिश बहुत की ठहर के ढूँढूँ इन रास्तों पर,
मगर कहाँ मिलता यहाँ तो हर कोई खुद से कोसो दूर है,
सोचा शायद सुनसान सड़कों में मिलूँ खुद से,
शायद पहाड़ों की उँचाई से दिखूं,
बिका नहीं नोटों की खुश्बू से,
रुका नहीं कमजोर हसरतों की ज़ंजीरों से,
फिर भी ढूँढ ना पाया खुद को कहीं,
अब सोचता हूँ की शायद मैं तो यहाँ कभी था ही नहीं,
फिर भी एक आस लिए भटकता हूँ की क्या पता कहीं
किसी मोड़ पर
मुझसे मैं मिलूँ…
-N2S
21092012