ओहदों की नुमाईश करने वाले,
खुद चले गए, ओहदे रह गए,
अंजाम हुए सबके एक से,
कुछ दफ़न हुए तो कुछ राख बनकर धुआँ हो गए,
क्या गुमान करूँ चीज़ें समेटने का?
ये शोहरत के सामान किसके अपने हुए,
शायद इश्क़ की सीढ़ी ही पहुँचाये मुझे मेरी मंज़िल,
के फकीरों को ही जन्नत नसीब हुए,
पर मुझे तो जन्नत की भी चाहत नहीं,
उड़ान भरकर जो सफर ख़त्म करूँ मैं,
मुझे मेरे पहाड़ों की मिट्टी मिले…
-N2S
06052017